STORYMIRROR

Apoorva Singh

Abstract

4  

Apoorva Singh

Abstract

कर्तव्य बनाम धर्म

कर्तव्य बनाम धर्म

1 min
319

कभी कभी सोचती हूं

ऊपर बैठा वो खुदा

सब देखता होगा

चढ़ रहा कैसे परवान कलयुग

ये भी सोचता होगा

अग्रसर होता मनुष्य पशुता की ओर

और हो जाएं सारे भेद खत्म

कर दूं क्या अंत इस युग का

जरूर विचारता होगा।


बंधन का अब कोई जोर ना रहा

हर बात पे टूटते देखा है

बनी है हर एक रिश्ते की मर्यादा 

मर्यादा तोड़ मैंने जुर्रत बढ़ते देखा है।


बेटे के सुख के लिए

बाप खुद की इच्छाएं मार देता है

देवता सा मुख लिए

वो अपनी ज़िन्दगी वार देता है।

कैसे करूँ यकीन साहब

इन बुढ़ापे की लाठियों पे

मैंने पिता की चिता पे

मुस्काती औलाद को

धर्म के लिए लड़ते देखा है ।


जिनका है सूरज उगता

ईश्वर की आराधना से

कि उसे पाने की है कोशिश

पूजा से और साधना से

घंटी शंख बजा के तुम

उस खुदा को जगाते हो

बिना मुंह में डाले खुद कुछ

उसे तुम भोग लगाते हो।

जिस घर में मिट्टी की मूरत को

नित पकवान चढ़ते देखा है

वहां मुरझाई वृद्ध मां को

मैंने भूख से तड़पते देखा है।


कर लो आराधना श्री राम की

या इबादत अल्लाह की

जो गया भूल अपने धर्म को

उसे मुक्ति के लिए तरसते देखा है।

यहां धर्म हिन्दू मुस्लिम नहींं

ये है कर्तव्य उस रब से मिला

जो गया चूक इसे निभाने में

मैंने ताउम्र बिलखते देखा है।                 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract