वीर तू बढ़ता चल
वीर तू बढ़ता चल
तू सोचता है कुछ कभी तू करता है कुछ कभी
उस सोच को तू क्यों ना खुद से बांध ले
जो ठान ली तूने अगर जो मान ली तूने अगर
लहरा देगा परचम तू ये जान ले
आरम्भ है ये ज़िन्दगी का तेरी ही मौजूदगी का
भय का वस्त्र तू ये फेंक उतार दे
धारण कर तू अस्त्र अब उठा ले अपने शस्त्र सब
पराजय को दौड़ में पछाड़ दे
है शत्रुओं का डेरा हर तरफ से ले है घेरा
घूर घूर के तू वीरता की धार दे
रख ना शौर्य में कमी कोई ना आंखों में नमी कोई
जो आए मौत तो बस दहाड़ दे
मान खुद को अवतार श्री राम का है आकार
अवगुणों को लात मार तू धिक्कार दे
कर्तव्य के तू पथ पे चल धर्म के तू रथ पे चल
जो आए कोई रास्ते में, फाड़ दे
है सनातन का वंश तू महादेव का अंश तू
संस्कृति के झंडे फिर से गाड़ दे
जो हिन्द के गद्दार हैं और पाक के पहरेदार हैं
उस दुष्ट को तू जड़ से फिर उखाड़ दे
है शत्रुओं का डेरा हर तरफ से ले है घेरा
घूर घूर के तू वीरता की धार दे
रख ना शौर्य में कमी कोई ना आंखों में नमी कोई
जो आए मौत तो बस दहाड़ दे ।