करार नहीं मिलता
करार नहीं मिलता
इश्क के मारों को कहीं करार नहीं मिलता
बेख़बर हुए ज़माने के रंगे महफिलों से
खिजां के सुर्ख गलियों में बढ़ते हैं कदम
बसंत बहारों में उनको बाग गुलज़ार नहीं मिलता
इश्क के मारों को कहीं करार नहीं मिलता
तैरते हैं अश्क के समन्दर में
ढूँढती है आसरा कातर निगाहें
खाक होते हैं अरमाँ जिंदा लाश बनकर
गणेश अश्कों को दफना दे ऐसी कोई मजार नहीं मिलता
इश्क के मारों को कहीं करार नहीं मिलता
सपने जो देखे थे बेहिसाब
टूटकर बिखर जाते हैं ख़्वाब
चुभती हैं टुकड़े टुकड़े ये आइना
अपने ग़मों को भुला दे ऐसा संसार नहीं मिलता
इश्क के मारों को कहीं करार नहीं मिलता।