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Manisha Sharma

Tragedy

4  

Manisha Sharma

Tragedy

कोरोना काल और उम्मीद

कोरोना काल और उम्मीद

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दुनिया मैं कहीं ना कहीं कुछ ना कुछ घट रहा है ।

जो वक़्त बेवक़्त् हम से हम तक बंट रहा हैं

सर्द हवाएँ चली आएगी जो बसन्त के फूलों को बर्बाद कर जाएगी

खैर कुछ बच गया अगर तो गर्मी उन्हें झुलसाने आ जाएगी


बिना कागज बिना पासपोर्ट के आ रहा कोई वाइरस 

इंसान इंसान से डर रहा है बिक रही है सांसें कैसी है ये कश्मकश

धड दबोचेगा मुझे कोई 

जब मे मिला रहूँगी किसी से हाथ


जिंदगी ने सवालात बदल डाले वक़्त ने हालत बदल डाले

एक छोटे से विषाणु ने सबके ख्यालात बदल डाले

जो हया नजरों मे थी जुबां पर आ गई 

सांसें घुटने टेक रही 

कफ़न श्मशान से उड़ कर सड़कों पर आ गई


कहीं ना कहीं शुरू हो चुकी है रोटी कि बेबसी

इंसान बेघर हो चूका खाने को निवाला ना मिला

इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवीं बरस

आदमी को आदमी का संभाला ना मिला


जहां भी जाती हूँ संदेह करती हूँ देखती हूँ 

लकड़ी को मेजों को पेड़ के तनों को 

बार बार धोती हूँ अपने हाथ 

नज़र दौडती हूँ अखबारों पर् 

हो अच्छी खबर अच्छे दिनों की शुरुआत


कुछ हैं निशाने पर कुछ नीसा हो गए 

कुछ अपने घाव लगा गए तो दोस्त भी दूर हो गए 

जिसके खिलाफ कोई तैयारी नहीं सिर्फ

वो बद्चाद् हुए है जर्जर उम्मीद और बूढ़ी किस्मत।


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