कोई लाठी नहीं बनता सफर में
कोई लाठी नहीं बनता सफर में
बेहद तन्हा से हो गए हम जमाने की नज़र में ,
हमारे दुश्मन जो बहुत थे हमारे ही शहर में !
वक़्त रहते अगर मेरे अपने भी आ जाए काश ,
तो जी लें चंद सी जिन्दगी जो पड़ी है डगर में !
दिल के छाले से उठता रहा दर्द बारहा गिरकर ,
कोई लाठी नहीं पकड़ाता जिन्दगी के सफ़र में !
चढ़ते हुए सूरज ने तम्मना पुरी ना की तो क्या ,
अब हम कहाँ जायें इस उम्र के ढलते हुए पहर में !
मेरे सामने मेरा जनाज़ा उठानेवाले से कहना ,
कोई परिंदा अकेला जला है, शबनम के शहर में !