कोई कविता निकलकर आ रही है
कोई कविता निकलकर आ रही है
कोई कविता निकल कर आ रही है
प्रसव वेदना की पीर सी
चुभ रही है नुकीली तीर सी
बाहर निकलने को देखो तो
वह कितनी छटपटा रही है।
कोई कविता निकलकर आ रही है।
अंतरावेगों को संवारती सी,
वाह्य-आवेगों को विचारती सी।
बाहर निकलने को देखो तो,
वह कितनी अकुला रही है।
कोई कविता निकलकर आ रही है।
कहीं चुपके से झांकती सी,
उस पार की पीर को आन्कती सी।
गुमसुम सी हुई देखो तो
वह कितनी पिघलती जा रही है।
कोई कविता निकलकर आ रही है।
गौरैया की चोंच की नोक सी
कुन्जों में कोयल की कूक सी
कौऔं के कांव कांव के मध्य भी
कितनी चहकती जा रही है।
कोई कविता निकलकर गा रही है।
वह विशिख-दन्त-कराल-ब्याल सी
कुन्डली कसती जा रही महाकाल सी
दुश्मनों को झपटने दबोचने को
देखो अपना फ़न फैला रही है।
मेरी कविता निकल कर गा रही है।
वह रण मत्त हो विषवाण सी
रक्त-दन्त-रंजित विषपाण सी
सीमा पर अरि मर्दन करने को
शोणित थाल देखो सजा रही है।
मेरी कविता रण राग सुना रही है।
मेरी कविता निकलकर गा रही है।