कोई अंजाना सा
कोई अंजाना सा
ख्यालों के शहर में कब कोई अंजाना सा टकरा जाता है
चोरी चोरी चुपके कब कोई अपना सा हो जाता है
ख्वाबों का बुना सपना लगता जैसे सच हो जाता है
आंँखो के दरमियां जैसे एक नशा सा छा जाता है
हर अक्श हर आफताब में जैसे वह अपना बना नजर आ जाता है।
हर पल हर शमा तो अब जैसे रंगीन नजर आ जाता है
अब उसका छोटा सा परेशान होना भी हमे तकलीफ दे जाता है।
अब हर सुबह की शुरुआत उसकी ख्यालों से होती है
जब वो ना आए दफ्तर में तो दिन जैसे अब बदतर सा लगता है।
अब उसके बेगैर ये दिन ये दोपहर ना शाम अच्छा लगता है।
साजन का हर बात अब सच्चा लगता है।
तुम्हारे बिन साजन अब कुछ ना अच्छा लगता है
उसका पास होना अब अच्छा लगता है
उसका छूना भी एक अजीब सा चुभन होता है।
अब तो बिंदिया लगा लेती हूंँ
काजल फैल जाए तो रुक रुक के साफ करती हूंँ
अब आईना ना जाने कितनी दंफा देखा करती हूंँ
उसकी मनपसंद और नापसंद का ख्याल मैं रखती हूंँ
प्यार कोई खेल नहीं इस दिल पे मेरा कोई जोर नहीं
प्यार कोई खेल नहीं अब तेरे बिन जी लगता नहीं।