कमरे की टूटी खिड़की
कमरे की टूटी खिड़की
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इस जर्जर कमरे की टूटी खिड़की से हवा अंदर आती तो है।
सर्दियो मे सर्द थपेड़े ही सही गर्मियो मे असर दिखाती तो है।
बचपन की अठखेलियों जो खेल के बिताई इसके इर्द-गिर्द।
जो कभी याद नही आते दोस्त उनकी यादे जेहन के एक कौने को सिहर जाती तो है।
गुली-डंडे की वो डंडी दे घुमा के मारनी खिड़की के काँच में।
टूट के बिखरी वो काँच भागने का ईशारा करती थी हमको, उसका अहसास आज भी मेरे सँग तो है।
ना वो दोस्त रहे ना वो खेल रहे जिधर देखो पत्थर के घर बन रहे है।
उम्र के इस पड़ाव मे आँखे भी तो धुंधली पड़ गयी पर आज भी सुनहरे पलो की यादे छुपा के इनमे रखी तो है।
ना जाने हवा के किस थपेड़े से मेरे सुनहरी बचपन के दिन बिखर कर हवा हो जाये।
जब तलक सांसो की डोरी टूटे न भगत तब तक ठंडी हवा की बयार सूखे चिथडौ से बहनी तो है।