कलम खामोश थी
कलम खामोश थी
वह घनी अंधेरी रात थी,
जहाँ परछाईं तक ना स्वयं के साथ थी |
सन्नाटा इतना, कि धड़कनें खुद को सुनायी दें,
और खुद के पैरों की ध्वनि का डर चेहरे पर दिखलाई दे।।
पर, वह फिर भी चल रहा था,
पीछे से आती ध्वनि को मरीचिका समझ रहा था।
उसको दफ्तर पहुँचने की जल्दबाजी थी,
आखिर व्यवस्था के खिलाफ कलम जो चलानी थी।।
कलम, जो उसकी ताकत थी,
कलम, जो उसका आक्रोश थी।
जब दूसरों को लूटने वाले बुत बन बैठे थे,
तब वो अकेली कलम थी, जो ना खामोश थी।।
अब वह कलम फिर से किसी के खिलाफ उठने वाली थी,
हाँ, वह व्यवस्था को आईना दिखलाने वाली थी।
लेकिन, तभी अचानक-
कुछ प्रतिध्वनियाँ आसमान में गूँज उठी,
शांत वातावरण को भेदती इक चित्कार उठी |
रक्तरंजित कुछ तलवारें इक देह के पार थी,
आखिर वो देह ही तो कलम का आकार थी।।
अगले दिन छपकर आया यह अखबारों में,
पत्रकार का खून लगा है कुछ 'अज्ञातों' की तलवारों में।
देखकर यह आवाम क्रोध से सरागोश थी,
पर हाँ, किसी की कलम खामोश थी।।
इक चर्चा दबी ज़ुबान शुरू हुई,
कुछ बातें बस कानों-कान हुई,
वह रक्त चढ़ा था, सत्ताधारियों का अभिषेक कराने को,
सफेदपोशों के कपड़ों पर लगे दाग मिटाने को।
खाकी ने भी खाक में मिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी,
कंधों पर लगे सितारों की, शायद जेब मजबूरी थी।।
फिर क्या था,
कुछ आवाजें तो उठी ही थी, न्याय दिलाने की,
जनता की आवाज़ को इंतकाम दिलाने की।
पूरा जंतर-मंतर मोमबत्तियों से सराबोर था,
चारों ओर निकलती शांति यात्रा के पदचापों का शोर था।
पर, किसी को कोई ना आस थी,
क्योंकि, उसकी कलम खामोश थी।
हाँ, सभी की कलम खामोश थी।।
