विधि का क्रूर खेल
विधि का क्रूर खेल
एक पिता का साया उठ गया
विधि का कैसा क्रूर खेल हुआ
एक आकस्मिक दुर्घटना से,
हंसता खेलता घर उजड़ गया
अभी उम्र ही क्या थी उसकी,
चंद सांसो से ही हार टूट गया
किसी का कम उम्र में ही जाना
ये हमारा मन कहां मानता है
लगता नही तू अब न जिंदा है
अभी भी लगता तू जिंदा है
ये कैसा क्रूर कर्म विधि का हुआ
हम सबका चेहता दोस्त चला गया
एक पत्नी का सुहाग उजड़ गया
एक बच्चे का दरख़्त उखड़ गया
प्रभु तेरे फैसले तू ही जानता है
पर ये मन क्यों न जानता है?
होनी को टालना हमारे वश में नही है
मासूम फूल टूटना भी अच्छा नही है
कभी किसी के साथ ऐसा न कर ख़ुदा
भरे सावन में न दे किसी को सूखा
भीगी आंखों से ये मन जलता ही गया
फौलादी सीना भी रोने को मजबूर हुआ
उसके साथ के लम्हे महसूस कर,
ये वक्त बड़ी सुईयां चुभोता गया
किसी अपने मीत के जाने से मन,
दरिया से ज्यादा गहरा भरता गया
अब और ऐसा वज्रपात न देना खुदा
हौंसला अब तो पूरा ही तरह टूट गया।
