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बर्बाद-ए-इश्क

बर्बाद-ए-इश्क

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अपनी जिन्दगी की दास्तान मैं किसी को क्यों सुनाऊँ,

'गर राज दफ़न है तो आग क्यों लगाऊँ?


किरदार बस अलग है कहानी सब की एक है,

तो बात बार बार क्यों दोहराऊँ?


दिल्लगी, आशिकी, मोहब्बत ने बदले निजाम है,

ये बेवफ़ाई आखिर किसे और क्यों सुनाऊँ?


इक वक्त साहिब-ए-मसनद था फिर तख्ता पलट हुआ,

महल लूटा तो घर की याद क्यों जतलाऊँ?


वजह जीने की छिन जाके दक्षिण में मिला,

ये बात आज तक तड़पाती है पर दूसरों को क्यों सताऊँ?


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