किसान
किसान
ना कुछ पाने की चाह
ना खोने का डर रहा है।
सफ़र का मुसाफिर
इक अर्से से घर रहा है।
मानवता का एकमात्र प्रतीक
किसान सदा शिखर रहा है।
रोटी, कपड़ा और मकान
जिसका अब कतरा कतरा बिखर रहा है।
बहुत सताया हुआ है वो
उसके गाँव में भी एक शहर रहा है।
आग, पानी और हवा
इन सबका अलग ही क़हर रहा है।
आज़ाद होकर भी यहाँ
ग़ुलामी का एक पहर रहा है।
अनाज सस्ता, बीज़ महंगा
सियासतदारों का हर पल क़हर रहा है।
औरों का खाने वाला
अब किसी से नहीं डर रहा है।
जो अन्नदाता, जन्मदाता
वो ही क्यों फिर बेमौत मर रहा है।