किसान
किसान
विडंबना ये देखिए कि देखना ये पड़ रहा
कृषि प्रधान देश में किसान अकेले ही लड़ रहा
जन्म जन्मांतर से ही दुःखों को झेलता आ रहा।
खुद का पेट काट कर औरों का भरता आ रहा।
कभी बारिश का डर तो कभी सूखाग्रस्त,
हर मौसम में वो देश का भार सहता आ रहा।
इतना सब करके भी हमेशा दुत्कारा गया है।
किसान देश का विकास के नाम पर मारा गया है।
सत्ताधारी लोभ प्रलोभन करते ही रहते हैं,
किसी के सर का ताज़ तो किसी का जीवन वारा गया है।।
फ़सल खरीद पर सस्ती और बीज़ महंगा हो गया।
किसान का खून पसीना तो जैसे अनारकली का लहंगा हो गया।
आजकल वो खरीददार हैं बाज़ार के,
जिनके लिए जान सस्ती और रुपया महंगा हो गया।