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Kunda Shamkuwar

Tragedy

3  

Kunda Shamkuwar

Tragedy

कितने सारे काश

कितने सारे काश

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कभी सोचने लगती हुँ 

काश की मैं जिंदगी के सारे काश मिटा दूँ

सारी हिम्मत इकट्ठा कर 

सुबह सवेरे उठकर बैठ जाती हुँ

कलम लिए सोचने लग जाती हूँ 

शुरुआत कहाँ से करू?


फिर याद आती है मुझे बचपन की पहली हँसी जब मैं ठठाकर हँस पड़ी थी

लेकिन माँ ने फौरन ही डाँट दिया था

लड़कियों को धीरे से हँसना होता है

तब से आजतक मैं मुस्कुरा भर देती हुँ 


काश! तब मैं माँ से सवाल करती की मेरे ठहाकों से क्या धरती कही से चटकती है?


कॉलेज में किंचित से खुले कपड़ों पर बाबा के एतराज को भाँपते माँ मुझे नसीहतें देती थी

तब से आजतक भीषण गर्मी में भी कपड़ों से पूरे शरीर को ढँकते रहती हूँ


काश! मैं बाबा से सवाल करती की इज्जत और अदब का कपड़ों से क्या लेना देना है?


यूनिवर्सिटी में जाकर एम बी ए करने की मेरी ख्वाहिश बस ख्वाहिश ही रह गयी

क्योंकि बड़ों का कहना था कि अच्छे घर की लड़कियाँ लड़कों के साथ नही पढ़ती


काश! मैं बड़ों से पूछ पाती कि बिना तालीम के कोई घर कैसे अच्छा हो सकता है?


शादी में मेरी पसन्द को तरजीह ना देकर खानदान में शादी कर दी

क्योंकि बुजुर्गों का मानना था कि लड़का देखाभाला होंना चाहिए 


काश! मैं कह पाती कि क्या मैंने बिना जाने उस लड़के को पसंद किया था?


काश कि मैं उस समय कहती की कोई लड़की सिर्फ पाबन्दियों से महफ़ूज नही होती

और कह पाती की आजादी और आजाद ख़याली के फ़र्क को मैं समझती हूँ


और भी न जाने कितने सारे काश हैं

आज अगर उन सारे काश को मैं जला भी दूँ

तब भी वे तन मन मे सुलगते ही रहेंगे....


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