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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

Abstract

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Ramashankar Roy 'शंकर केहरी'

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कितना अच्छा होता

कितना अच्छा होता

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कितना अच्छा होता

अगर मैं पागल होता

यदि यही तीन हैं :

कवि, दार्शनिक और प्रेमी

कवि बन :

नित्य नवीन कल्पना करता

उषा संध्या को नया रूप देता

दिवस निशा मिलन की उपमा खोजता

गुलाब को शोषितों के लहू से रंगा कहता

कुछ अर्थहीन अस्पष्ट कहता

सार्थकता जिसकी सिद्ध करते

विवेकशील तर्क से

स्तब्ध रह जाता

अर्थनीहित अर्थहीन विचार से

कितना अच्छा होता

अगर मैं पागल होता ।।

दार्शनिक बन :

विचार करता

अस्तित्वहीन के अस्तित्व पर

उदासीन रहता लोगो के दुख दर्द से

आवाज सुनता आती जो कब्र से

कष्ट की सार्थकता सिद्ध करता

इस लोक में परलोक के लिए

जिसका स्वयं आभास नहीं

कहता तेरे पास है

पास की भी दूरी नहीं

अंदर वर्तमान है

इनका ही तो सम्मान है

कितना अच्छा होता

अगर मैं पागल होता ।।

प्रेमी बन :

बदल सा मनप्रांत पर छाता

बरसकर भी न पछताता

भौरे सा कलियों पर दौड़ लागत

हो बंद पंखुड़ियों में

असीम आनंद पाता

सामर्थ्य भूल जाता

बाहर आ पछताता

अपने दुखों को गुनगुनाता

औरों को गाने का आनंद आता

कितना अच्छा होता

अगर मैं पागल होता ।।

लेकिन :

क्या पागलों के बीच अकेला हूँ

या पागल ही अकेला हूँ

जो देखकर महसूसते नहीं

या सहकर भी कहते नहीं

कितना अच्छा होता

अगर मैं पागल होता ।।



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