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shraddha shrivastava

Abstract

4  

shraddha shrivastava

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किताबी दौर

किताबी दौर

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वो किताबी दौर क्यों ना फिर से आये

दीमक से किताबो को बचाने की

जद्दोजहद में सारा दिन युही निकलता जाये !


वो किताबी दौर क्यो ना फिर से आये

वो पढ़ते-पढ़ते आँख लग जाये,

वो आँखों का चश्मा नाक पे आ जाये,

वो किताबें भी कुछ आधी बन्द सी हो जाये,


वो बगल की रखी हुई चाय में मलाई पड़ जाये,

वो कुर्सी और टेबल के बीच नींद का झोंका बार बार आये !

वो किताबी दौर क्यो ना फिर से आये

वो पानी के छिटे आँखों पे मारते हुए,

वो किताबो के पन्ने पलटते हुए और समय को नापते हुए,

वो शब्दो का अर्थ कुछ अलग ही निकालते हुए !

वो किताबी दौर क्यो ना फिर से आये


वो पेज को मोड़ के किताब बन्द करते हुए

वो सिहरने पे रखा के हिसाब सब करते हुए

वो सोते सोते पन्ने का पेज नंबर याद करते हुए

हल्की सी मुस्कान को संग रखते हुए,

वो चादर में बहुत कुछ समेट के सोते हुए !

वो किताबी दौर क्यो ना फिर से आये


दीमक से किताबों को बचाने की जद्दोजहद में

सारा दिन यूँ ही निकलता जाये !

वो किताबी दौर क्यों ना।


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