किताबें
किताबें
किताबों के फलसफे
हमारी निजी ज़िंदगी से
अलग सही
फिर भी इसमें गोते लगाने को
दिल चाहता है।
जब भी ये मेरी हाथों में आते हैं
दिलों दिमाग से कुछ पल के लिए ही
सही सब कुछ धूमिल हो जाता है।
किताबों से ये यारी
अब रास आ गयी मुझको
रूठने मनाने की कवायद
नहीं इस रिश्ते में।
रिश्तों सी दगाबाजी नहीं
कुछ ले के कुछ देने की
सौदेबाजी नहीं।
भले कहीं मेज़ पर पड़े
कई सालों से धूल खाती रहे
फिर भी जब खोलूँ उसे तो
अपनी सी लगती है यह किताबें।
किताबें यूँ तो निर्जीव होती हैं
पर उनमें रचे शब्द
उन्हें जीवंत बना देते हैं।
किताबें हमेशा फुर्सत में होती हैं,
जब चाहा सीने से लगाया
जब चाहा तकिया बना उन पे सो गयें।
किताबों पे नाम भर लिख देने से
किताबें अपनी सी लगती हैं
रिश्तों को नाम देने के बावजूद
वो कब पराये हो जायें....क्या मालूम।।