चाभी
चाभी
जाती हो तो चली जाओ ,
बस कुछ चाभियाँ जो मेरी
तुम पर उधार हैं वो लौटा देना
जो तुम्हे मैंने बड़े विश्वास से सौंपी थी
विश्वास शायद मेरी दुनिया
इस छोटे से शब्द पर ही टिकी थी
दोस्तों यह चाभियाँ मेरे किसी महल की नहीं
बल्कि मेरे मन की छोटी -बड़ी भावनाओं की हैं
काश की में यह जान पाता की
तुम्हे कदर ही न थी मेरी भावनाओं की ,
बहुत देर लगी मुझे तुम्हे पहचानने में
शायद गलत सोचा की तुम तो स्त्री हो
,जो भावनाओं से ओतप्रोत होती है
,पर तुम्हारा स्त्री होना तो याद रहा
पर यह भूल गया की तुम आज की स्त्री हो
जिसे आसमान की उचाइयाँ तो दिखती हैं
पर ज़मीन पर लगा वो पेड़ नहीं देखता जिस पे उसका घोसला टिका हुआ है |
स्त्री की सहजता ही उसकी श्रेस्टता है
,खैर मुद्दे से भटक गया था मैं ,
गम वाली चाभी तुम अपने पास ही रखना
ये उन आंसुओं की तिजोरी की चाभी है
जिसमे तमाम तुम्हारे दिए आँसू हैं ,
जब फुर्सत हो तो इन्हे खोलना और
आँसू के एक -एक कतरे से जो
सवाल उभरेंगे उनका जवाब तुम ही देना
मेरे माथे पे ये जो शिकन पड़ी छोड़े जा रही हो तुम
,वो तुम्हारे ही कुछ सवालों का नतीजा है ,
वो क्या है न मैं भगवान शिव की तरह
इसे अपने माथे से सजा कर नहीं रख सकता ,
मैं इंसान हूँ उनकी तरह ज़हर के कड़वे घूंट
पी कर मुस्कुराना मुझे नहीं आता
या शायद वो ज़हर तुम्हारी बातों से
कम कड़वा रहा हो खैर अंत में
बस इतना ही कहना है
भावनाओं की ये चाभियाँ
घर की चाभियों से ठीक उलट है
इसकी कोई प्रतिलिपि नहीं बनायीं जा सकती,
घर की चाभियों को तो साड़ी के कोर से
कस के गिरह बाँध सकती हो ,
खो जाने पर इसकी प्रतिलिपि भी बनवा सकती हो
,पर यह मन की चाभी एक बार खो गयी तो
फिर न तुम मुझे भूल जाना
मेरी कोशिश होगी तुम्हे याद ना करने की
