STORYMIRROR

Ruchika Nath

Abstract

3  

Ruchika Nath

Abstract

सोच

सोच

1 min
452

कभी कभी मैं सोचती हूँ की मैं क्यों सोचती हूँ

क्या मेरी सोच मेरे सपनों को पर देगी

या मेरी सोच मेरे सपनों को हक़ीक़त में बदल देगी

क्या मेरी सोच मेरे टूटे हुए हौसलों को सहारा देगी

क्या होगा इस सोच की दीवार से परे उस ओर


जाना चाहूँगी एक दिन अपनी ही सोच के परे

पर मेरी सोच में जो हक़ीक़त की मिलावट है

वो बड़ी गाढ़ी है

किस को फर्क पड़ता है अब रात में मैं सोती हूँ

या सोचती हूँ

हम इंसान ये सोचते हैं की फलां रंग हम पर

फबता नहीं

रंगों ने कब सोचा वो किस के लिए बने हैं


ऐसे ही रूठी तो में खुद से हूँ फिर मुझे कोई

और कैसे मनाएगा

एक खाई सी है मुझ में और मेरे मंज़िल के दरमियाँ

सपनों के पुल इस खाई को पाट नहीं पायें 

जो चली इस पूल पर तो मुंह की खानी है

और दूर से तकती रही तो कभी नहीं थकने वाली

सोच से हर रोज हारूंगी


मैं थक कर अपनी सोच को कहती हूँ थक गयी मैं

थोड़ा रुक जा एक सांस तो सुकून की मुझ को लेने दे

खुद तो तू सोती नहीं कम से कम

एक रोज तो

मुझे चैन से सोने दे |


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract