सोच
सोच
कभी कभी मैं सोचती हूँ की मैं क्यों सोचती हूँ
क्या मेरी सोच मेरे सपनों को पर देगी
या मेरी सोच मेरे सपनों को हक़ीक़त में बदल देगी
क्या मेरी सोच मेरे टूटे हुए हौसलों को सहारा देगी
क्या होगा इस सोच की दीवार से परे उस ओर
जाना चाहूँगी एक दिन अपनी ही सोच के परे
पर मेरी सोच में जो हक़ीक़त की मिलावट है
वो बड़ी गाढ़ी है
किस को फर्क पड़ता है अब रात में मैं सोती हूँ
या सोचती हूँ
हम इंसान ये सोचते हैं की फलां रंग हम पर
फबता नहीं
रंगों ने कब सोचा वो किस के लिए बने हैं
ऐसे ही रूठी तो में खुद से हूँ फिर मुझे कोई
और कैसे मनाएगा
एक खाई सी है मुझ में और मेरे मंज़िल के दरमियाँ
सपनों के पुल इस खाई को पाट नहीं पायें
जो चली इस पूल पर तो मुंह की खानी है
और दूर से तकती रही तो कभी नहीं थकने वाली
सोच से हर रोज हारूंगी
मैं थक कर अपनी सोच को कहती हूँ थक गयी मैं
थोड़ा रुक जा एक सांस तो सुकून की मुझ को लेने दे
खुद तो तू सोती नहीं कम से कम
एक रोज तो
मुझे चैन से सोने दे |
