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डा.अंजु लता सिंह 'प्रियम'

Inspirational

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डा.अंजु लता सिंह 'प्रियम'

Inspirational

खुद की पहचान

खुद की पहचान

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खुली किताब सी हूं मैं, जो बाहर हूं वही भीतर-

मुखौटों से मुझे नफरत, सत्य को साधती जी भर,

खुद से करती रहूं वादा, निभाना मुश्किलों में साथ-

अजीज ए दिल बनूँ सबकी, खुदा!जब तक हूँ धरती पर.


देखूं नित दर्पण, खुद को निहारूं, चिंतन करूँ मैं खुद को संवारुं 

सब को सराहूं देखूं चहुँ ओर, भागा जाता है समय मुंहजोर

सोपान दर सोपान चढ़ती हूं ऊपर, जीवन के मग में अपने दो पग धर

ध्यान रखूं अपने लक्ष्य की ओर , जूझ रही खुद से करती ना शोर  


धर्म-कर्म मानूं, खुद को पहचानूं, मेहनत की जज्बे की कीमत भी जानूं

अर्ध्य देकर करती हूं रवि को नमन, ओजस्वी मस्तक पर महके चंदन

सुखद सुहानी लगती है भोर, प्रकृति पूजक हूं, आस्तिक घनघोर

भर लेती अंजुरी में पावन उजास, जग जाता है मुझमें आत्मविश्वास


ममतालु मम्मी की मैं हूं परछाई, चहल-पहल चाहूं त्यागूं तन्हाई

चंचलता मेरी पहली पहचान, मुस्काता चेहरा दिल में ईमान

कर्मठता, लेखन, नृत्य कला, गान, चित्रकारी, पाक कला है मेरी शान

गुरु बन शिष्यों को राह दिखाई, मान मिला अनमोल, जिंदगी ये भायी


बनना था मुझको तो डिप्टी कलेक्टर, लेखन में जीती, हारी थी थककर

उठी फिर दुगना उत्साह के लिये, पी एच डी की मन में चाह लिये

शिक्षा के क्षेत्र में नाम कमाया बच्चों में जमकर ज्ञान लुटाया

व्याख्याता पद का है मुझको अभिमान, बढ़ाया सदा मैंने


हिंदी का मान कंचन सी काया है सांवले सपन, संस्कारों में ही रमता है मन

मुड़ी जब मैं नाते रिश्तों की ओर, नाच उठा मेरे मनवा का मोर

लुप्त हुआ मेरे क्रोध का आवेश, मस्त रहने का मिला परिवेश

लेखन की धुन की दीवानी हूं मैं, हां अपने मन की ही रानी हूं मैं


खुद से ठिठोली करुं खुश भी रहूं, बड़ों की दुआओं से झोली भरूं

व्यस्त रहूं अपनी ही दुनिया में मैं, किसी से न कोई शिकायत करूं

खुद की ही पहचान देती सुकून, नेकदिल रहूँ बस यही है जुनून 

उड़ती फिरूं कल्पना के गगन में, कलम थामे रक्खूं सच्ची लगन में


इंसां हूं मैं तो परिंदा नहीं हूँ, जमीं से जुड़ी हूँ, जिंदा यहीं हूँ 

भगवान ही मेरे तन में समाए, उनसे शुरू हो उनमें समाए।


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