ख़फ़ा
ख़फ़ा
लिफाफा देखकर ख़त का मजमून भांप जाते थे जो
उनकी नजरें करम ही ना हुई हाले दिल बताते जो
पहलू में कबसे बैठे हैं उनके मगर कुछ बेखबर से हैं
ये जज्बात हमारे उनके सामने बिल्कुल बेअसर से है
चिंतन कैसा और क्यूँकर इसका आभास नहीं था मुझे
नहीं थी ऐसी उम्मीद उनसे और ना था विश्वास मुझे
बेताब दिल कभी से इस इन्तजार में था आतुर बैठा
कभी तो निगाहें मुड़ेंगी उनकी इस ख्याल था में बैठा
उनका ऐसे नजरें चुराना पल भर भी गवारा नहीं हुआ
तरसती निगाहों को जरा सुकूं और आराम नहीं हुआ
अब किससे करें गिला और शिकवा कहने से फायदा
मजबूर हालात बताएं किसे सुनेगा कौन हमारी सदा।

