मन
मन
इस मन का यकीन कैसे करूं
ये मन बहुत ही हरजाई है
चाहे जितने जतन करूं मैं
इसकी तृष्णा ना बुझ पाई है
हर पल कुछ कुछ खोजता रहता
जाने क्या क्या सोचता रहता
कितने ही खयाली पुलाव पकाता
क्यों इसको कभी चैन ना आता
एक पल चंचल एक पल उदास
और कभी होता है बदहवास
कभी हो जाता खुद से नाराज
बांधे कभी रक्खे है आस
तो कभी देता अपनी सफाई है
कभी एकाकी रास ना आयी
कभी अंधकारों में खो जाता
कभी अतीत में जा समाता
कभी सुकून का पाठ पढ़ाता
तो कभी ख़ुशी के दीप जलाता
इसको खुद से समझ ना आता
आखिर कार यह चाहता क्या है
अपने ही बुनाए जाल में
खुद ही फंसता चला जाता है
बदलते मौसम की तरह से
यह भी अनेकों रूप है धरता
कभी धुप तो कभी है छाया
की तरह तासीर बदलता
इसका कोई दीन ईमान नहीं हैं
सही गलत का कोई ज्ञान नही है
कब रूठे कब मान जाये
इसका कुछ अनुमान नहीं है
किसी पहरे में रह ना पाए
एक जगह पर ठहर ना पाए
हर वक्त बस उड़ना चाहे
कहाँ जाना यह पता नहीं है
मनमौजी सा चलता जाए
समय का कोई ध्यान नहीं।
