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Paramita Sarangi

Tragedy

4.5  

Paramita Sarangi

Tragedy

खजुराहो

खजुराहो

1 min
404


मेरे कंकाल में चिपकी है

कविताओं की एक

पुरानी पांडुलिपि

जिस में मैंने लिखी है

वृक्ष के केश में फँसे हुए

तारों की कहानी


ख्वाब और ख्वाहिशों में

लड़खड़ाती वफाओं को लेकर

खत्म हो चुके प्रेम की तलाश में

नासमझ खजुराहो की नर्तकियाँ 

नजर नहीं मिला पाती खुद से

कैसे समझाऊँ उन्हें

इस गुफा के संगीत और

अंधकार के बीच में

समय ने मुझे भी छला है


शाम से उड़ने वाली

मुट्ठी भर धूल

नाचती रहती है देर रात तक

फुसफुसाती है कुछ

मैंने उसे सुन लिया

वह एक सवाल था

"क्या किसी पुरुष ने दी है

कभी अग्निपरीक्षा?"


शिला में लिपटे असंख्य स्वप्न

तड़पते हैं, तड़पते हैं

एक झंकार के लिए

अपने अस्तित्व को 

जाहिर करने के लिये

देखते हैं मुझे टकटकी लगाए


हाँ, यह सच तो है

प्राण हो या निष्प्राण 

नारी को ही तो ढूँढनी पड़ती है

अपनी अस्मिता


मगर मैं तो हूँ एक अवशेष

इतिहास के खंडहरों में

कैसे कहूँ तुम्हें

भाषा के अलावा

नहीं कोई और हथियार

मेरे पास।



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