कहीं रहबंद ना दिखता
कहीं रहबंद ना दिखता
वक्त का परिंदा उड़ चला है,
साथ अपने कुछ यादें, कुछ वादे लिए।
कुछ बनते बिगड़ते रिश्तों की
मिठास, कुछ दर्द से भरे नगमें,
जो कानों में दर्द भर देते हैं, रिश्तों
के अनगिनत उतार-चढ़ाव के साथ।
अंतस डूबा डूबा सा लग रहा है, मन
के, विचार जाने कहां-कहां विचर रहे।
कोई कहीं रहबंद ना दिखता है,
सब गिरहें जिंदगी के सफर में,
ढीले हो छूट गए या कहो खुल गए,
आजाद परिंदे हवा में उड़ गए।
मानो हमसे कह गए उड़ना है
तो, स्वार्थी बनना सीख।