बस अब और नहीं..
बस अब और नहीं..
बस अब और नहीं...
खुद पर शारीरिक मानसिक सभी यातनाएं सहती एक स्त्री हर दिन की शुरुआत या हर दिन के अंत पर यही सोचती है
बस अब और नहीं...
यह सोच वह अपने मन में संकल्पती
है कि उसके साथ जो गलत हो रहा है
वह उसे अब और नहीं सहेगी,
खुद को,खुद पर हो रहे वार,
व्यवहार एवं अत्याचार से बचाएगी ,
अपना अस्तित्व यूं नहीं मिटने दे सकती है," स्व "को ससम्मान, महत्वपूर्ण बना 'स्व' से प्यार करके बची जिंदगी बिताएगी।
और नई हिम्मत, ताकत बटोर अपने खुद को उगाहने में लगा देगी ,पर ये समाज, परिवार,उस पर लादी गई जिम्मेदारियां
उसे वह करने नहीं देती है,जो वह सोचे बैठी होती है, कि बस अब और नहीं..
रात्रि का प्रहर, पूरा परिवार गहरी नींद में सोया हुआ और वह स्त्री फिर सोचती है
कि आज का दिन तो बीत गया, ना कर पाई कुछ खुद के लिए, दिन भर काम करके खुरदरी हथेलियों को आंचल से अपने पोंछ ,उसी आंचल से रुलाई रोकती हुई सोचने लग जाती है कि
कल से बस अब और नहीं ...
