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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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कहीं भी रहो

कहीं भी रहो

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कहीं भी रहो

पर रहो

और यूँ रहो की तुम्हारा रहना

लगे कि हो।


आजकल कुछ अजीब सा है

तुम हो तो सही

पर तुम्हारा होना

न मेरे लिये

होना हो पा रहा है

न तुम खुद अपना होना

प्रत्यक्ष कर पा रहे हो


जब कि तुम्हें

मेरे आगे आगे होना चाहिये

आगे नहीं तो साथ साथ

साथ साथ नहीं

तो फिर मेरे पीछे पीछे ही सही।


यूँ ही हम

सक्रिय हो सकते हैं

सिर्फ होने भर से क्या।

अरे ईश्वर को भी

अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये

अवतरित होना पड़ता है

यानि कुछ करना पड़ता है।


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