खिड़की के उस पार
खिड़की के उस पार
सर्दियों के दिन है वर्षा हो रही है मूसलधार
छुुुप गए सब आज ढक लिए हैैं घरों के द्वार
न कोई पक्षी गाता न कहीं पर बच्चो का शोर
आग के पास बैठ सभी एक ओर सेे दूूसरे छोर।
मैं भी बैठी हूं आज लेकर कलम हाथ में फिर से
ओढ़ा गर्म ऊन का शॉल पांव तक लेकर सिर से
देेख रही हूं बाहर को एकटक लिखूं कुछ इस बार
ऊंंची पहाड़ी पर सफेद धुंध चढ़ी हुई खिडकी के पार।
कितनी सर्द है फिर भी इसका बरसना जरूरी क्या
बोरियत होती घर के भीतर बहुत हो गई चली तू जा
ठिठुरन हो रही है उस कुत्ते को जो है बिल्कुल बेघर
भूख मिटाने को जाए कैसे उस पर जरा दया तो कर।
घर में पानी चला गया उसके जो रहती मिट्टी के नीचे
पहले जैसी फसलें नहीं है तो अब कौन भूमि सिंंचे
धूप आएगी तो सब काम को अपने बाहर जायेंगे
पशु पक्षी सब खाना अपना ढूंढ शाम वापस आएंगे।