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ख़्वाबों के पल

ख़्वाबों के पल

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फूलों की कलियाँ सी नन्ही थी गुड़िया,

लगती थी जैसी वह जन्नत की परियाँ।


दादी की लोरी और माता की गोदी में,

सपने सुहाने थे आते और जाते।


सफ़र बीती बचपन की आई जवानी,

शुरू हो चली अब नयी एक कहानी।


कोई अजनबी रात की तन्हाई में,

बजाने लगा प्यार की शहनाई।


कभी बन के राजा, कभी बन के जोगी

पसारे खड़ा था वो छोटी सी झोली ।


उसे देख गुड़िया ने सुध-बुध खोई,

समर्पित किया खुद को हँसकर वो बोली


तुम्ही मेरे जीवन और संसार तुम हो,

तुम्ही मेरी नैया और पतवार तुम हो।


दोनों मिले कृष्ण-राधा के जैसे,

धरा पर कहाँ कोई प्रेमी थे ऐसे।


खुली नींद जब वह अकेली खड़ी थी,

छलकते हुए अश्रु नैना भरी थी।


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