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Kiran Kumari

Abstract

4.3  

Kiran Kumari

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मृगनयनी की प्रेम जाल

मृगनयनी की प्रेम जाल

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छोटा सा बीज संजोया उसने, धरती के गर्भ में दबा दिया,

उसमें नियमित जल देकर वह, छोटा सा पौधा उगा दिया।


उसे देख माली के मन में, अपरमित खुशियां उमर पड़ी,

दुख के दिन अब भूल चुके, मन में आशा की दीप जली।


पाल-पोष कर बड़ा किया, अपना सर्वस्व था लुटा दिया,

रंग लाई थी मेहनत उसकी, सुंदर सा इक फूल खिला।


आयी मृगनयनी इक युवती, कपट-कुसंगत साथ लिए,

भौरें की तरह मंडराती फिरती, प्रेम-जाल की फांस लिए।


था निष्कपट सुघर और सुंदर, छल और कपट से भेंट नहीं,

फंस गया मृगनयनी के वश में, जीवन का अब ठौर नहीं।


हर सुख प्राप्त किया फिर उसने, जी भर उसको त्रास दिया,

बिलख रहा अब सुमन बेचारा, भूल पै पश्चाताप किया।


मानव की भी है यही दशा, किसको सुनाए मन की व्यथा,

छाए ना किसी पर ऐसा नशा, कोई न बने अब दूजा कथा।


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