ख़ुश्क रिश्तें
ख़ुश्क रिश्तें
कभी कभी रिश्तों में पहले वाली 'वो' बात नही रहती
ऐसा वे रिश्तें खुद कहते रहते है
कभी नज़रे चुराकर..... कभी नज़रअंदाज कर...
वे अख़्तियार कर लेते है खामोशी एक लंबी खामोशी....................
वे भी जान जाते है अब उनमे 'वो' वाली बात न होगी
रिश्तों की ख़ामोशी की परवाह किसे होती है?
क्योंकि रिश्तें भी उनके लिए सहूलियत के होते है
अपनी सहूलियत और फ़क़त अपनी बातें
सहूलियत के रिश्तों में बस काम की बातें होती है
काम से ही बातें होती है.......
ना रिश्तें बनाने की कोई जद्दोजहद
और ना ही रिश्तें निभाने की कोई जरूरत
ये रिश्तें एकदम ख़ुश्क होते है.......
उनमे 'वो' बात नही होती है....
ऐसा वे रिश्तें खुद कहते रहते हैं........
