ख़ुदाए गालिब
ख़ुदाए गालिब
रात आधी हो चली,
सहर दस्तक दे चली
गालिब को सुनता हूँ
और चंद लफ्ज लिखता हूँ !
अगली सुबह कुछ कानों में,
वो पढ़ता हूँ जो लिखता हूँ
कुछ कानों में उतरता हूँ
और कुछ मैं बस गूंजता हूँ !
चंद वाह-वाहिया और
मेरी बेअदबी तो देखो
खुद को खुदा ए ग़ालिब नहीं
उससे भी ऊपर समझता हूँ !
