कठपुतली
कठपुतली
ऐ बेखबर मिट्टी के पुतले
खुद को इंसान कहने की भूल कर बैठे।
सारी जिंदगी यूँ तो नाचती रह गयी,
हर शाम नुक्कडे सजाती रह गयी।
कुछ खोया नही तो भी क्या पा सके ?
किसी के अहसास तक न जगा सके।
हँसाया सबको उम्र भर और
खुद एक आंसू भी न बहा सके।
धागों की उलझन में जकड़ी अहसास बेचारी
मिट्टियों पे तराशी नक्काशी बेअल्फाज तुम्हारी।
कभी खुद का रूप भी न निहार सके
बेगैरत जी तो लिया पर मौत न पा सके।
