उधेड़बुन
उधेड़बुन
बेअदब था जिंदगी से
जीने के उसूल मालूम नहीं थे !
कुछ गलतियों का मैं इंसां
कुछ कर गुजरा होश में होके !
कहो न जो अब भर दूँ जुर्माना
खता मेरी माफ कर दोगे ?
अरमानों को जहाँ भर के
लफ्जों में मैं पिरोना चाहता था !
हुआ कुछ यूं कि इल्म मुझे
अपने ही दिन और रात की नही
मैं हुआ भी वही जो तुम चाहते थे
ये मैं वो नही जो मैं चाहता था !
कहो जो चंद लम्हें मैं वक़्त से पीछे कर दूँ
तो ख्वाब मेरा लौटा दोगे ?
जिंदगी की उधेड़बुन से सीखा बहुत कुछ
दिखाया बहुत कुछ, छुपाया बहुत कुछ।
कुछ अपने बने, हुये कुछ पराये !
फिर कहाँ से दोनों के दरम्यान, एक तुम आये !
जमीं जिंदगी की बंजर ही रहती
धार औजारों से यूँ ऊबड़खाबड़ न लगती !
जो टके चंद तुम्हारी जेबों में भर दूँ,
कत्ल अहसासों के मेरे, जरा फिर कर दोगे ?