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VIKAS KUMAR MISHRA

Abstract

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VIKAS KUMAR MISHRA

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बेशरम का डंडा

बेशरम का डंडा

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जाने क्यूँ लोग उसे बेशरम का डंडा बुलाते थे ?

मेरे साथ तो उसकी कुछ अलग ही यादें जुड़ीं हैं !


वो गरीबो के क्रिकेट का दूसरी छोर का बल्ला हुआ करता था !

वो बचपन के क्रिकेट ग्राउंड का स्टंप हुआ करता था !


मास्टर जी और पिता जी के हाथों की छड़ी हुआ करती थी !

दस के फटे नोटों को जोड़ने की तब वही कड़ी हुआ करती थी !


बचपन जब खेलने की घड़ी हुआ करती थी

बेशरम के डंडो से ही मेरी इमारत खड़ी हुआ करती थी !


सर्दी की रातों में बैलों के दाएं इसी से तेज हुआ करते थे

कभी कभी गायों को चराने वो और मैं साथ जाया करते थे !


हो गया हूँ मैं भी जवां और शायद शर्म उसे भी आने लगी है !

बेशरम के डंडों की उम्र भी शायद अब कम हो चली है !


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