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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

ख़ामोश रहने लगा हूँ

ख़ामोश रहने लगा हूँ

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आजकल ख़ामोश रहने लगा हूँ

ख़ामोश ही जिंदगी जीने लगा हूँ


अपनों ने मुझे सताया इतना की,

आंसू भी शौक से पीने लगा हूँ


इस कदर दर्द छिपाया सीने में,

अंगारों से प्यास बुझाने लगा हूँ


आजकल ख़ामोश रहने लगा हूँ

खामोशी को अपना कहने लगा हूँ


आज सबसे स्वार्थ की बातें सुनता

किसी भी मुँह से सत्य नही सुनता


अब तो कानों पे पट्टी रखने लगा हूँ

और आंखों पे चश्मा लगाने लगा हूँ


आजकल ख़ामोश रहने लगा हूँ

खामोशी से ज़ख्म सीने लगा हूँ


मेरी आवाज उन्हें अच्छी न लगती,

जिनके पास कोई रोशनी न जलती,


आजकल में अपनी आवाज को,

खामोशी की बूंदे नित्य देने लगा हूँ


आजकल ख़ामोश रहने लगा हूँ

भीतर ही भीतर जीने लगा हूँ।


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