कहाँ गया बचपन
कहाँ गया बचपन
मस्ती और खूब सारी शरारतों से भरा हुआ जीवन,
वक़्त की धारा में बहकर जाने कहाँ गया बचपन,
ख़्वाबों की दुनिया, कितनी अच्छी थी वो नादानियाँ,
याद आती है जब कभी, प्रफुल्लित हो जाता है मन।
अनोखे खेल खेलना दोस्तों के साथ ऐसा था बचपन,
उत्साहित रहते थे इतने जैसे सूरज की पहली किरण,
बेवजह हँसना, बेवजह रोना, ना चिंता ना कोई फ़िक्र,
अपनी ही एक दुनिया थी, बचपन था खिलता चमन।
जहाँ उलझनों में नहीं, ख़्वाबों में उलझा करते थे हम,
प्यार की होती थी बरसात जब कभी आँखें होतीं नम,
झगड़ते थे दोस्तों संग, माता-पिता की डाँट भी खाते,
फिर भी महकती थी दुनिया हमारी नहीं था कोई ग़म।
धन दौलत नहीं होंठों की मुस्कुराहट से अमीर थे हम,
चंचल था मन इतना हमारा तितलियों से नहीं थे कम,
माँ का आँचल, पिता की डाँट, दादी माँ की कहानियाँ,
ऐसा जीवन जीने को तो मैं लेना चाहूँ बार-बार जन्म।
काश! वक़्त का पहिया ले चले वहीं जहाँ था बचपन,
न छल कपट था, न किसी से नफ़रत, निश्छल था मन,
थक चुका हूँ मैं, ये समझदारी के खेल रास आते नहीं,
कुछ लम्हों के लिए ही सही जीना चाहूँ मैं वही जीवन।
