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Bhavna Thaker

Tragedy

4.0  

Bhavna Thaker

Tragedy

खामोश मंज़र

खामोश मंज़र

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कायनात को कभी घेरे रहता था

वो शोर का समुन्दर आज

बेजुबाँ नज़र आता है, 

दौड़ते पहियों का ठहरना

ये खामोश मंज़र 

ये सूने शहर का आलम 

बंज़र नज़र आता है, 

खरोंच जो दे रहा है वक्त 

उन ज़ख़्मों को कुरेद रहा हूँ,

उजाले कहीं खो गए है 

चिराग ना जलाओ अभी, 

क्या पता कब खत़्म होगा 

तम घिरी रातों का मंज़र, 

बाकी है अभी चार दिवारी में 

जूझते ज़िंदगी का सफ़र,

तरसते थे जिन लम्हों को बेसब्री से

क्यूँ चार दिन में ही ढ़ल गए 

बोझिल होते तनाव की गर्द में,

कितनी दिलकश है शर्त ज़िंदगी की

जीतूँ कैसे दाँव पर क्या लगाऊँ,

सरमाये की सारी चीज़ें ही

जहाँ बिखरी पड़ी है

वक्त का क्या मलाल करूँ,

कहर ढा कर चुप-चाप 

गुज़रता गजब ढा रहा है

हर दिल में ख़ौफ़ का

एक महल खड़ा हुआ है।।


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