नवगीत
नवगीत
1 min
800
रात तकिए के नीचे रख कर ही तो हम सोये थे
सुबह देखा तो जाने कहाँ गये ख्वाब जो बोए थे
नींद से की हजारों बातें जो अपनी ही सहेली थी
अनबूझी अनसुलझी मगर फ़िर भी एक पहेली थी
क्या कहते किसी से कि ये नैन कितने रोये थे
जैसे काठ का कोई सीलन भरा बदबूदार दरबा
भारी मन, भारी जीवन, टूटे अरमानों का मलबा
बांध बांध कर गठरी , बोझ कंधो पर ढोये थे
सजाया संवारा करीने से पलकों पर भी बिठाया
काजल का टीका लगा हर बुरी नज़र से बचाया
फ़िर भी डरे डरे और ना जाने कहाँ खोये थे
