विराम
विराम

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अमर है आत्मा
नहीं मरती किसी अस्त्र
किसी शस्त्र से
बदलती है चोला
बार -बार
शरीर का पिंजर
हर बार
नये परिवेश में
ढ़ालता है खुद को
परम्पराओं को
ठुकरा कर
लेटेस्ट फैशन के हिसाब से
मॉडर्न बनता है
सीखता है नयी बातें
जानता है दुनिया को
अपनी नज़र से
आत्मा
कई बार निकलना
चाहती है इसके घेरे से बाहर
संसार के नियम कायदों से
होना चाहती है मुक्त
लेकिन न जाने कौन सी
बेड़ियों से बंधी छटपटाती है
और जीती है उम्र कैद में
अपने सफ़र के विराम तक