बादलों की ओट में
बादलों की ओट में


कल रात छत पर देखा
मैंने चाँद को
कुछ कुछ आधा अधूरा सा
गुमसुम सा थका थका
बादलों की ओट में
छिपता छिपाता खुद को
गुज़र रहा था धीरे धीरे
मैंने सोचा चलो
कुछ गुफ्तगू हो जाये
कुछ अपनी कुछ उसकी
सुन ली जाये
मैंने पुकारा ऐ चाँद सुनो
चौंक कर रुक गया
और बोला
कोई उपवास है क्या आज
जो मुझे याद किया
वरना तो मुझे
कोई पूछता भी नहीं
मैंने कहा तुम तो
अब भी बहुत मशहूर हो
कवि तुम पर कवितायें
लिखते हैं
तुम्हारी खूबसूरती की
मिसाल देते हैं
प्रेमी अपनी प्रेमिका के
चेहरे की तुलना
तुमसे करते हैं
कभी चौदवीं का चाँद
कभी पूनम का तो कभी
ईद का चाँद कहते हैं
शांत, निर्मल, शीतल
समझते हैं सब तुम्हे
बच्चों के मामा कहलाते हो
मुझे पता है
तुम अपनी तारीफ़
सुनकर जरूर इतराते होगे
अपनी सुंदरता पर
होता होगा तुम्हे अभिमान
इसलिये तो
सुहागिनों को सताते हो
बादलों में छिप कर
सच कहूँ तो मुझे भी
तुमसे जलन होने
लगती है जब लोग
मुझसे पहले
तुम्हारा नाम लेते हैं
चाँद जैसा मुखड़ा
भला ये भी कोई बात हुई
सुन कर ये सब बातें
चाँद फ़ीकी से हँसी हँसा
बोला मैं महीने के
आधे दिन तो गुमनामी के
अँधेरे में रहता हूँ
अमावस में तो मनहूस
करार दिया जाता हूँ
ग्रहण में तो कोई मुझे
देखना भी
पसंद नहीं करता
मेरी व्यथा मैं ही
जानता हूँ
तुम क्या समझो दर्द मेरा
दूर सबसे गगन में
अकेला मैं किस तरह
हूँ जीता
रात में सबको
रोशनी देता हूँ
सुबह होते होते
ढल जाता हूँ
और तो और अब तो
लोग मुझे चैन से
जीने भी नहीं देते
यहाँ तक पहुँच जाते हैं
रात भर सफ़र
करना आसान
नहीं होता
तुम क्या जानो
रूप बदले मैंने
खुद को बहलाने के लिये
उसे ही तुमने
मेरी अदा माना
कैसे बताऊँ तुम्हे
हूँ मैं कितना तन्हा
कितना तन्हा ।