किताबें हमें बनाती हैं, किताबें हमें गढ़ती
हैं
अंजना बख्शी
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ़ के सर होने तक.
मेरी सारी ज़िन्दगी ग़ालिब के ही शेर की
तरह गुजरी, पैदा होते ही अंधेरे घर में जैसे दुआएं गुम
हो गई थीं. बहुत अंधेरा था. होश संभालने
वाली लड़की खरगोश-सी मासूम की तरह तो
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किताबें हमें बनाती हैं, किताबें हमें गढ़ती
हैं
अंजना बख्शी
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तेरी जुल्फ़ के सर होने तक.
मेरी सारी ज़िन्दगी ग़ालिब के ही शेर की
तरह गुजरी, पैदा होते ही अंधेरे घर में जैसे दुआएं गुम
हो गई थीं. बहुत अंधेरा था. होश संभालने
वाली लड़की खरगोश-सी मासूम की तरह तो
थी लेकिन उसे इस अंधेरे से डर भी लग रहा है.
’मम्मा’ (मां) कितना अंधेरा है?’ नन्हीं-सी
बच्ची की बातें मां की आवाज़ों में गुम हो
जातीं.
’अंधेरा है तो क्या हुआ. लड़कियां इसी अंधेरे में
रास्ता बनाती हैं. इसी अंधेरे में एक दिन ताड़ के
पेड़ की तरह लंबी हो जाती हैं… अंधेरा तब भी
रहता है.एक परिवार के बंटते हुए भी वे इस अंधेरे के
तक्सीम से गुजरती रहती हैं’---
मां की आंखों में एक दर्द सिमटा होता. तभी
सोच लिया था मुझे अंधेरे का हिस्सा नहीं
बनना. तभी से बिगड़ने लगी थी मैं. हर वो काम
करना चाहती थी जिसके बारे में कहा जाता
था कि ये काम लड़कियों को नहीं करना
चाहिए. मैं उड़ना चाहती थी, खिलखिलाना
चाहती थी, चमकते हुए जुगुनुओं को हाथों में कैद
करना चाहती थी, चपेटे खेलना या रस्सी
फलागना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं था. मुझे तो हर
उल्टे-सीधे काम पसम्द थे. लड़कों की तरह पेड़ पर
चढ़ जाना, पत्थर लेकर आम के कच्चे-कच्चे बौरों पर
फेकना, इमलियां और बेर तोड़ते हुए एक सुखद-सी
अनुभूति होती थी मुझे. थोड़ा आगे बढ़ी तो
आम के बौरों से रिश्ता टूट गया. इमलियां अब
कुछ ज्यादा ही खट्टी लगने लगीं. मन ग़ालिब
के शेरों की तरह कुछ और चाहने लगा. मां तब भी
अंधेरा दिखाकर कहा करती—’ ये रास्ता तेरा
नहीं है अनु, इन रास्तों पर तो केवल लड़के चलते हैं.
तब पहली बार कहीं प्रेमचन्द की ’पांच फूल’ मिल
गई थी मुझे. पांच फूलों जैसी कहानियां---- इन
कहानियों में एक अजीब-सी दुनिया थी. अब
दुनिया आबाद थी…लगा ये तो मेरी दुनिया
है. लेखक ने कैसे लिखा होगा इस दुनिया को.
इस बार कमरे में गई तो वहां अंधेरा नहीं था,
वहां मेज पर किताबें थीं. तब से किताबें दोस्त
बनती चली गईं…या दूसरे शब्दों में कहूं तो मुझे
गढ़ती चली गईं.
कभी-कभी इन कहानियों को पढ़ते हुए बहुत जोर
से रोना आता मुझे खासकर उस ज़मानें में मंटो
की कहानियां पढ़ते हुए. मां ने बंटवारे की
इतनी कहानियां सुन रखी थीं. मां ने
कहानियां दादा-दादी के मार्फत सुनी थीं.
उन्होंने बंटवारे को बहुत करीब से अपनी आंखों से
देखा था, जलती हुई ट्रेनों को भी… जब
इंसानी लाशों से भरी ट्रेनें आया करती थीं.
सगे-संबन्धियों को करीब से मरते हुए देखा---वो
लोग तक्सीम के वक्त रावलपिण्डी से
हिन्दुस्तान आए थे. मैं इन किस्से कहानियों को
सुनती हुई बड़ी हुई थी.
बंटवारा एक नासूर की तरह मुझे सीलता रहा
था. फिर मंटो ने ऎसी-ऎसी कहानियां
लिखी थीं कि इन्हें पढ़ते हुए मेरी आंखें भीग-
भीग जातीं. इन कहानियों में मर्दों का एक
क्रूर चेहरा भी होता---जहां औरत कसाबखाने में
टगें गोश्त के लोथड़ों से ज्यादा नहीं थी. सब
उसे खोल-खोल कर देखा चाहते थे. ’खोल दो’
पढ़ते हुए मैं चीख पड़ी थी. नहीं प्लीज शलवार
का नाड़ा मत खोलना सकीना.. ’धुंआ’ और ’ठंडे
गोश्’ ने मर्द-औरत के अलग-अलग मनोविज्ञान को
चित्रित किया था. आप विश्वास करें, मंटो
की इन कहानियों को पढ़ते हुए मैं इतनी भयभीत
हो जाती कि कभी-कभी दरवाजा बंद कर
चीखने-चिल्लाने का जी करता और फिर आइने
के सामने खड़े होकर खुद को देखकर फिर जोर से
चीख पड़ती. मुझे लगता मेरे चारों ओर दंगे भड़क रहे
हैं और मंटॊ के खतरनाक चरित्रों ने मुझे चारों ओर
से घेर लिया है. मैं लंबी-गहरी सांसे ले रही
होती. उसी ज़माने में मंटो के साथ-साथ इस्मत
चुगताई, कृश्नचंदर, बेदी ---इन साहित्यकारों
को पढ़ने का इत्तेफ़ाक हुआ. अब मुझे पढ़ने की लत
लग गई थी. इस्मत के ’लिहाफ’ में हाथी फुदक रहे
थे..तौबा-तौबा. मुझे इन हाथियों से वहशत हो
रही थी, लेकिन लिहाफ की बेगम आपा से मुझे
पूरी-पूरी हमदर्दी थी. मुझे नवाब साहब पर
गुस्सा आता कि वो सारा दिन और सारी
रात लोडे-लापड़ों में घिरे होते और उन्हें बेगम
साहबा की मजबूरियों का जरा भी अहसास न
होता. इस्मत चुगताई की इस कहानी ने मुझे
गहराई में उतरकर सोचने पर मजबूर किया.
दुनिया को इस्मत की नजरों से बोल्ड बनकर
देखने की कोशिश करने लगी थी.
शब्दों के लिबास को पहना तो अंजना नई
होती गयी. ये वो ज़माना था जब पहली बार
कितने ही नए नामों को पढ़ने का इत्तेफाक
हुआ---रसूल हमज़ातोव की ’मेरा दागिस्तान’ पढ़
डाली. रूसी एवं अन्य साहित्यकारों से
तोस्ती बढ़ी. तोलस्तोय, दॉस्तोएव्स्की,
गोर्की, चेखव, शेक्शपियर, चॉम्स्की, स्टीवेन्सन,
रस्किन बॉण्ड…
मेरे जिस्म में बरसात के फूल खिलने लगे थे---हवा
मदहोश थी---अब कविताओं के अंकुर नए सिरे से
फूट रहे थे. बदली थी मेरी आंखें---जीवन को देखने
और जीने की समूची दृष्टि में परिवर्तन आया
था.
मैं रसूल हमज़ातोव को धन्यवाद देती थी…
“मैं हर बार उड़कर तुम्हारे पास पहुंच जाती हूं रसूल
तुम कैसे बुनते हो इंसानी आत्मा से एक देह या देह
से
एक इंसानी आत्मा,
तुम दृष्टि को लिबास पहनाने का हुनर,
कैसे सीख पाए.
मैं देह-आत्मा से गुजरती
अक्सर तुम्हें छूने के प्रयास में,
जख्मी हो जाती हूं रसूल.
मेरे पंख काट दिए गए
और मैं उड़ना भूल चुकी
लेकिन अब वापस लेना चाहती हूं
तुमसे अपनी उड़ान. “
यहीं पहली बार पाब्लो नेरूदा को पढ़ने का
इत्तेफ़ाक हुआ. मेरी कायनात बदली थी. एक
तीसरी आंख खुली थी. सत्य की निर्गम
वादियों से गुजरने को हौसला जागा था. मैं
बड़ी हो रही थी. कठिन होता है लड़की में
उड़ते पंखों का जागना. उन्हीं दिनों अमृता
प्रीतम, सारा शगुफ़्ता और परवीन को पढ़ने बैठ
गई. मुहब्बत में कैद औरतें---अमृता से सारा और
परवीन तक हसीन कायनात. सारा ने आत्म-
हत्या कर ली---परवीन भरी जवानी में मोहब्बत
के ताप के साथ जग को अलविदा कह गई---
अमृता सारा जीवन साहिर की यादों के
साथ बसर कर गयीं. …कहीं एक बूंद शेष है …मैं अपने
भीतर उस बूंद को ढूंढ़ रही थी---जीवन के
सारांश में उलझी उस बूंद को जो मुझको कह रही
थी अंजना मत तलाश करो…
साहित्य केवल बहना सिखाता है जहां जख्म
रिसते हैं. पराए ज़ख्मों को अपना कहते हुए हम खुद
को लहूलुहान कर बैठते हैं---मैंने खुद को देखा तो
चौंक गई. साहित्य की कितनी डगर से गुजरती
हुई---मैं सचमुच लहू-लुहान थी, लेकिन यहीं मुझे अपने
लिए विचारों का एक नया बसेरा भी आबाद
करना था
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