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Dr. Pankaj Srivastava

Tragedy

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Dr. Pankaj Srivastava

Tragedy

खाकी

खाकी

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बचपन से देखा है इस खाकी का दर्द,

जब सब होली के रंगों में खोये होते हैं

तब वे कहीँ शांति व्यवस्था सुनिश्चित कर रहे होते हैं ।


हम चैन से सो सकें इसलिये,

वे रातों को घूमते रहे संगीन लिये।


हम दीवाली के शोर में खोया करते हैं,

और उनके बच्चे पापा कब आओगे पूछा करते हैं।


घर में बीमार परिजनो को छोड़ वो

शहर की बीमारियां भगाया करते हैं।


वर्दी के अन्दर भी हमारे- आप वाला हाड़ मांस ही तो है, 

उनकी भी तो गिनती की सांस ही तो है।


इश्वर ने इन्सान बनाया, पांच उंगलियों का भिन्न आकार बनाया,

हम सब उसकी ही रचना हैं,

फिर क्यों हमारी आंखों पर फाल्ट फाइनडिंग का चश्मा है?

बुरे के साथ अच्छा भी दिखना चाहिये, 

हर खाकी को सही गलत में नहीं तुलना चाहिये।


गेंहू के साथ घुन तो पिसता ही है,

पर इन्सान का इंसानियत से रिश्ता भी तो है।


हम भारतवासी हक के लिये सरों को काट लिया करते हैं

और जिम्मेदारियां देखते ही भाग लिया करते हैं।


कुछ को खाकी में दाग नजर आते हैं,

कुछ इंसानियत की दाद देते नही अघाते हैं।


दिन दहाड़े या सन्नाटे में,भीड़ में या हाते में,

झूठ, बेइमानी, लालच का खंजर हमने ही तो पकड़ रखा है

और हमें पकड़ने वालों को समाज ने विलेन बना रक्खा है।


हम लाख कोस लें खाकी को,

पर हमारा दामन भी बेदाग नहीं।

हक से ज्यादा हो जिम्मेदारी,

हम सबको इसका एहसास नहीं।



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