कठपुतली
कठपुतली
21 वीं सदी के माथे पर,
कठपुतली होने का कलंक हूँ मैं।
मेरे जीवन की उलझी डोर,
जिनके हाथ, हैं वो चहु ओर।
नख से लेकर शिख तक,
बालपन से वृद्धावस्था तक,
डोर हाथों को बदलती है,
पालक जो उनको समझती है,
वो उनके संचालन से ही चलती है।
खिंचाव नियम कानून का,
क्यों है प्यासा, बेटीयों के ही खून का।
बेटे स्वछन्द हो विचरते है,
क्यूंकि बुजुर्ग भूतकाल में रहते हैं।
रूड़ीवादिता का अंधेरा बेटियों के
उपर ही छाया है,
कठपुतली का खेल, हाट से
हमारे घरों में आया है।
वर्ग, वर्ण या कोई भी अवस्था हो,
बंदिशें तो पुरुष प्रधान समाज की
व्यवस्था है।
कायदे कानून को सुविधानुसार
तोड़ कर मोड़ दिया जाता है,
नैतिकता और जिम्मेदारी का
ठीकरा नारी सर फोड़ दिया जाता है।
नारी की बर्दाश्त की सीमा
प्रसव से आंक सकते है,
बच सकती है सृष्टि, वक्त
रहते अगर भांप सकते हैं।
इसकी नींव हमें घर से रखनी होगी,
अपने कुटुम्ब की सोच परखनी होगी।
नजर फेर कर आते हैं और
नीची कर घर में घुस जाते हैं,
कुछ सड़क के छिछोरे ही,
घर के लायक छोरे कहलाते हैं।
छोरियां को छोरों से कम ना आँकीये,
पाबंदियां तो छोरों पर भी लगाईये।
नारी सृष्टि का स्रोत है,
इसकी सोच को ना बाँधीये,
कठपुतली बना कर,
इनके सामर्थ्य को ना आँकिये ।
