मेरी माँ और मैं
मेरी माँ और मैं
बचपन से जवानी का काफिला,
आज शब्दों की धारा से जा मिला।
जब माँ ले, हाथ मेरा हाथों में अपने,
कहती है की होंगे पूरे तेरे सारे सपने।
उनके मन में मुझे जिताने की है आस,
स्फूर्ति सी भर देता है मन में,
मेरी माँ का विश्वास।
उनके जटिल रेखाओं से भरे हाथों में,
मुझे मेरे जीवन के पहाड़-मैदान
नजर आते हैं।
उनकी कोमल, मखमली काया का
आत्मविश्वास,
उनके कुल दीपकों को देता है रौशनी
का विश्वास,
जिनमे उर्जा संस्कारों की, प्रकाश
कर्मठता का दीप्तिमान है।
मैं अक्सर इस सवाल का जवाब
तलाशता हूँ,
सही गलत के माया जाल में
विचरता हूँ।
सारी सुख सुविधाओं के बाद भी
वो आज उनसे महरूम हैं,
और हम कपोल कल्पनाओं के
संसार में मसरूफ़ हैं।
उड़ते उडते नादान परिंदे, बड़ी दूर
उड़ चले, घर का आंगन छोड़,
परदेश को मुड़ चले।
सूखी माटी, बंजर धरती में स्नेह
प्रेम की वर्षा हो,
माँ का हाथ हो हाथों में ना कोई
लम्बा अरसा हो।
