खाक हो जाऊँ...
खाक हो जाऊँ...
जी करता हैं धड़कनों की धुन का
चीख रहा राग हो जाऊँ
जल के खाक हो जाऊँ
खुद को मिटा दे वह आग हो जाऊँ
सिमट जाऊँ रात के साए में
फिर खुदको कभी देख न सकू
जिंदगी की ज़िद छोड़ दूँ ऐसे
कि एक सांस भी रख न सकू
आग लगा दूँ उम्मीदों को
यह तमाम झूठे उजाले बुझा दूँ
यूं तूफान उठता हैं दिल में
कि खुद मौत को रजा दूँ
मिटा दूँ हर पहचान अपनी
जो रूह को डसती हैं
मिटा दूँ खयालों की फर्जी दुनिया
जो दिल के कोने में बसती हैं
हमेशा के लिए तन्हा हो जाऊँ
और बस तन्हा ही रह जाऊँ
उतार फेंकू यह खामोश मुखौटे
और तबाही का शोर हो जाऊँ
ईस कदर बेदर्द हो जाऊँ
अनसुनी कर दूँ अपनी तड़पती पुकार
सौंप के खुदको दरिया के हाथों
हो जाऊँ इन सांसों की ललकार
रूह को कांप जाती चीर जाती हैं
यू ही पुरानी सरगम
तो जकड़ के उन आजाद सुरों को
उसी बंदिश में तोड़ दूँ दम
