कभी मिलो चाय पर...!
कभी मिलो चाय पर...!
कभी मिलो चाय पर किसी सुबह,
तुम्हें इतना निहारुँ कि शाम कर दूँ!
तेरे लटों के बीच बसता है जो गुलफाम,
उसपर कुर्बान अपने सारे ईमान कर दूँ!
कभी मिलो चाय पर…
खूँटे पर टिका है जो कैलेंडर साल का,
उस कैलेंडर का हर इतवार, सोमवार,
मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनिचर,
सोचता हूँ, हर दिन तुम्हारे नाम कर दूँ!
कभी मिलो चाय पर…
दीवार पर जो टंगी पुरानी घड़ी है,
टिक…टिक…टिक…
बाहर कोने में जो टूटी चारपाई है,
जिसके सूखे दरख्तों पर आज भी नमी है,
इस उम्मीद में कि तू आए कभी,
तो अंतिम बार
तुझे दिल से सलाम कर लूं!
कभी मिलो चाय पर…
ये जो छतों पर सीलन है,
खिड़कियों में जाले है,
फर्श पर धूल और बिस्तर पर सिलवटें है,
तेरे इंतज़ार में…
सच कहता हूं,
तू आए तो पुराने घर को एक बार साफ कर दूँ!
कभी मिलो चाय पर…
तू आएगी न…?
कभी- कभी लगता है कि,
तू न आई, तो कैसे रहूँगा मैं
इस पुराने जर्जर खंडहर में,
जी चाहता है कि अब तेरे बगैर ही,
जिंदगी अपनी मसान कर लूँ!
कभी मिलो चाय पर किसी सुबह,
तुम्हें इतना निहारूँ कि शाम कर दूँ!
तेरे लटों के बीच बसता है जो गुलफाम,
उसपर कुर्बान अपने सारे ईमान कर दूँ!
कभी मिलो चाय पर...!