काश..!
काश..!
(आज प्रिय डायरी का अंतिम दिन)
काश...! ( वर्जन 2)
कितनी मोहब्बत है हमें तुमसे, काश ! हम तुम्हें ये बता पाते!
हमारे दृग में बसा है जो शख्स, काश ! हम तुम्हें ये दिखा पाते!
कितनी मोहब्बत
ऐ जिंदगी,
क्यों दी तूने कतरा भर मोहब्बत,
वो भी किश्तों में।
और छीन ली खुशियां सारी सूद समेत,
तमस भर आया रिश्तों में।
असीम पीड़ा के इस तमस को काश !
हम रिश्ते से मिटा पाते !
कितनी मोहब्बत...
बहुत अहं था हमें अपनी मोहब्बत पर,
लेकिन तूने तो हमारा गुरूर ही तोड़ दिया।
जान हाज़िर था सात जन्मो तक तेरी खातिर,
पर तूने तो ख़्वाबों का शहर ही छोड़ दिया!
तू उमा है म्हारे ख़्वाबों की,
काश ! हम तेरे शिव हो जाते !
कितनी मोहब्बत...
साथ में जब तू होती थी, पूरे तन मन से हम हँसते थे,
फ़िरदौस की खुशबू महकती थी, चाहत के आंच सुलगते थे।
भींगा था तकिया अश्कों से, जब रोई थी तू रातों में
तुम्हें कभी पता ना चला, कितने रोए हम बरसातों में!
जो गुजरी थी हमारे सीने में,
काश ! हम तुम्हें ये अहसास करा पाते !
कितनी मोहब्बत...
अब तो न तेरी उम्मीद है, न ही ख्वाहिश,
और न ही है तेरा इंतज़ार।
तूने छोड़ा, बैराग हुआ; यार छूटे,
घर छूटा, छूटा जग संसार।
इस उजड़ते हसीं संसार को,
काश ! हम फिर से बसा पाते !
कितनी मोहब्बत...
म्हारी इल्तिजा थी तुझसे, ओ मेरे पिया,
तू रंगती हमें सांचे प्रीत के रंग में।
हम भींगते उस रंग में,
औ झूमते अफीमी बसंत में !
वो रंग होता लाल, या होता फिर केसरिया !
तू अलबेला साजन, हम बन जाते तेरी जोगी बावरिया !
इस प्रीत के रंग को तेरे दिल में,
काश ! हम भी लगा पाते!
कितनी मोहब्बत है हमें तुमसे काश ! हम तुम्हें ये बता पाते।
हमारे दृग में बसा है जो शख्स, काश! हम तुम्हें ये दिखा पाते!

