कैसी है यह दुनिया
कैसी है यह दुनिया
व्यथित हो जाती हूं
दुखी हो जाती हूं
अस्त व्यस्त हो जाती हूं
कोई संभालने वाला नहीं है मुझे
खुद ही मन को समझाती हूं फिर
धीरे धीरे संभल जाती हूं
शिकायतें तो मेरी सारी जायज है लेकिन
उन्हें सुनने वाला कोई नहीं है
मैं सुनाने को तैयार हूं
अपने मन की व्यथा पर
उसे सुनने के लिए
किसी के पास समय नहीं है
कभी कभी लगता है कि
यह जीवन बेकार है और
मैं कोई इंसान नहीं बल्कि
हूं जमीन पर रेंगता ही
कोई कीड़ा
मानव में संवेदना का तो लगता है
जैसे अंत हो चुका है
जमीन पर रेंग रही है जो
चींटी
वह मुझे किसी मानव से अधिक
संवेदनशील और
अपने जीवन में किसी
मकसद को लेकर चलती हुई
दिखती है
कभी कभी लगता है
मैं हो गई हूं
अपने घर के आंगन में लगा
हुआ कोई बूढ़ा पेड़
जिसको घर के लोग
पानी देना भूल गये हैं और
उसके पास आकर
पल दो पल उसकी छाया के
नीचे आराम से बैठकर
बतियाना भी भूल गये हैं
मेरे सारे पत्ते झड़ते जा रहे हैं
मैं सूख रही हूं
मेरा जीवन खत्म होने की कगार पर है
कोई बहार मुझे अपना मुंह नहीं दिखाती
पतझड़ की लगातार मार से मैं मरी
जा रही हूं
मुझे जीवन के इस शायद अपने अंतिम मोड़ पर है
किसी हमदर्द की जरूरत
अपनों की आवश्यकता
प्यार की, अपनाहट की
चाहत लेकिन
यह समय हो या था
वह यौवनकाल का
मैं तो लोगों का व्यवहार
पहले भी और अब भी
ऐसे ही पा रही हूं
मैं इस दुनिया में आयी तो
उन्हें कोई खुशी नहीं
अब जा रही हूं या
जल्द ही चली जाऊंगी तो
कोई दुख नहीं
कैसी है यह दुनिया
यह पहेली
मैं सच में
सुलझा नहीं पा रही हूं।