कैसे
कैसे
चाशनी में अपने अल्फाजों को तब कैसे डुबाऊं,
जबरन जला रहें हों लोग बस्ती
मैं चुप कैसे रह जाऊं।
कश्तियां बड़ी मुश्किलों से आती है इस पार से उस पार,
जो सुराख बनाते हों, उन्हें क्या मैं बताऊं
और फिर
चाशनी में अपने अल्फाजो को कैसे डुबाऊं,
जबरन डुबा रहें हों लोग कश्ती
मैं कैसे मुस्कुराऊं।
ख्वाब बुलंदियों का थोड़ी गुदगुदी तो करता है,
दिल में जज्बात नए नए भरता है,
पर जब ध्यान बटे, कोई जमीं से कटे,
कैसे मैं न बताऊं
और फिर तब
चाशनी में अपने अल्फाजो को कैसे डुबाऊं,
जबरन नींद के आगोश में खुद को बता रहें हों लोग
उन्हें क्यों न जगाऊं।