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अंकित शर्मा (आज़ाद)

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अंकित शर्मा (आज़ाद)

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तलबगार

तलबगार

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वो जो उड़ रहे फिज़ा में आज़ाद होकर,

किसी अहम के परों पर सवार हैं वो।


गिरेंगे कभी तो आकर जमीं पर,

अभी किसी वहम के शिकार हैं वो।


समेटे हैं खामोशी, मेरे जिक्र के शोर में,

हकीकत है कि मेरे बड़े राजदार हैं वो।


वो जो दिखते हैं जुगनू से रोशनी मांगते,

लगी है भीतर आग, बहुत चमकदार हैं वो।


मेरी तकलीफ को नजरंदाज करते हैं यों

उन्हें लगता है जैसे परवरदिगार हैं वो।


वो जो हसीं हसी लिए हैं होंठो पे,

हमें इल्म है कि सच्चे सीतमगार हैं वो।


वो जो नासमझ इतना बनते हैं,

पता है हमें बहुत समझदार हैं वो।


वो जो फेर लेते हैं नज़रे मेरे आने पे,

हमें पता है मेरे ही तलबगार हैं वो।


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